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			599 
			 | 
|---|---|---|---|---|---|
	رباعی 
 | 1 
							 | 0 
							 | 
	در باغ چو شد باد صبا دایهی گل 
 | 
	حافظ 
 | 27 
							 | 
					
	رباعی 
 | 2 
							 | 1 
							 | 
	بربست مشاطهوار پیرایهی گل 
 | 
	حافظ 
 | 27 
							 | 
					
	رباعی 
 | 3 
							 | 0 
							 | 
	از سایه به خورشید اگرت هست امان 
 | 
	حافظ 
 | 27 
							 | 
					
	رباعی 
 | 4 
							 | 1 
							 | 
	خورشید رخی طلب کن و سایهی گل 
 | 
	حافظ 
 | 27 
							 | 
					
	رباعی 
 | 1 
							 | 0 
							 | 
	لب باز مگیر یک زمان از لب جام 
 | 
	حافظ 
 | 28 
							 | 
					
	رباعی 
 | 2 
							 | 1 
							 | 
	تا بستانی کام جهان از لب جام 
 | 
	حافظ 
 | 28 
							 | 
					
	رباعی 
 | 3 
							 | 0 
							 | 
	در جام جهان چو تلخ و شیرین به هم است 
 | 
	حافظ 
 | 28 
							 | 
					
	رباعی 
 | 4 
							 | 1 
							 | 
	این از لب یار خواه و آن از لب جام 
 | 
	حافظ 
 | 28 
							 | 
					
	رباعی 
 | 1 
							 | 0 
							 | 
	در آرزوی بوس و کنارت مردم 
 | 
	حافظ 
 | 29 
							 | 
					
	رباعی 
 | 2 
							 | 1 
							 | 
	وز حسرت لعل آبدارت مردم 
 | 
	حافظ 
 | 29 
							 | 
					
	رباعی 
 | 3 
							 | 0 
							 | 
	قصه نکنم دراز کوتاه کنم 
 | 
	حافظ 
 | 29 
							 | 
					
	رباعی 
 | 4 
							 | 1 
							 | 
	بازآ بازآ کز انتظارت مردم 
 | 
	حافظ 
 | 29 
							 | 
					
	رباعی 
 | 1 
							 | 0 
							 | 
	عمری ز پی مراد ضایع دارم 
 | 
	حافظ 
 | 30 
							 | 
					
	رباعی 
 | 2 
							 | 1 
							 | 
	وز دور فلک چیست که نافع دارم 
 | 
	حافظ 
 | 30 
							 | 
					
	رباعی 
 | 3 
							 | 0 
							 | 
	با هر که بگفتم که تو را دوست شدم 
 | 
	حافظ 
 | 30 
							 | 
					
	رباعی 
 | 4 
							 | 1 
							 | 
	شد دشمن من وه که چه طالع دارم 
 | 
	حافظ 
 | 30 
							 | 
					
	رباعی 
 | 1 
							 | 0 
							 | 
	من حاصل عمر خود ندارم جز غم 
 | 
	حافظ 
 | 31 
							 | 
					
	رباعی 
 | 2 
							 | 1 
							 | 
	در عشق ز نیک و بد ندارم جز غم 
 | 
	حافظ 
 | 31 
							 | 
					
	رباعی 
 | 3 
							 | 0 
							 | 
	یک همدم باوفا ندیدم جز درد 
 | 
	حافظ 
 | 31 
							 | 
					
	رباعی 
 | 4 
							 | 1 
							 | 
	یک مونس نامزد ندارم جز غم 
 | 
	حافظ 
 | 31 
							 | 
					
	رباعی 
 | 1 
							 | 0 
							 | 
	چون باده ز غم چه بایدت جوشیدن 
 | 
	حافظ 
 | 32 
							 | 
					
	رباعی 
 | 2 
							 | 1 
							 | 
	با لشگر غم چه بایدت کوشیدن 
 | 
	حافظ 
 | 32 
							 | 
					
	رباعی 
 | 3 
							 | 0 
							 | 
	سبز است لبت ساغر از او دور مدار 
 | 
	حافظ 
 | 32 
							 | 
					
	رباعی 
 | 4 
							 | 1 
							 | 
	می بر لب سبزه خوش بود نوشیدن 
 | 
	حافظ 
 | 32 
							 | 
					
	رباعی 
 | 1 
							 | 0 
							 | 
	ای شرمزده غنچهی مستور از تو 
 | 
	حافظ 
 | 33 
							 | 
					
	رباعی 
 | 2 
							 | 1 
							 | 
	حیران و خجل نرگس مخمور از تو 
 | 
	حافظ 
 | 33 
							 | 
					
	رباعی 
 | 3 
							 | 0 
							 | 
	گل با تو برابری کجا یارد کرد 
 | 
	حافظ 
 | 33 
							 | 
					
	رباعی 
 | 4 
							 | 1 
							 | 
	کاو نور ز مه دارد و مه نور از تو 
 | 
	حافظ 
 | 33 
							 | 
					
	رباعی 
 | 1 
							 | 0 
							 | 
	چشمت که فسون و رنگ میبازد از او 
 | 
	حافظ 
 | 34 
							 | 
					
	رباعی 
 | 2 
							 | 1 
							 | 
	افسوس که تیر جنگ میبارد از او 
 | 
	حافظ 
 | 34 
							 | 
					
	رباعی 
 | 3 
							 | 0 
							 | 
	بس زود ملول گشتی از همنفسان 
 | 
	حافظ 
 | 34 
							 | 
					
	رباعی 
 | 4 
							 | 1 
							 | 
	آه از دل تو که سنگ میبارد از او 
 | 
	حافظ 
 | 34 
							 | 
					
	رباعی 
 | 1 
							 | 0 
							 | 
	ای باد حدیث من نهانش میگو 
 | 
	حافظ 
 | 35 
							 | 
					
	رباعی 
 | 2 
							 | 1 
							 | 
	سر دل من به صد زبانش میگو 
 | 
	حافظ 
 | 35 
							 | 
					
	رباعی 
 | 3 
							 | 0 
							 | 
	میگو نه بدانسان که ملالش گیرد 
 | 
	حافظ 
 | 35 
							 | 
					
	رباعی 
 | 4 
							 | 1 
							 | 
	میگو سخنی و در میانش میگو 
 | 
	حافظ 
 | 35 
							 | 
					
	رباعی 
 | 1 
							 | 0 
							 | 
	ای سایهی سنبلت سمن پرورده 
 | 
	حافظ 
 | 36 
							 | 
					
	رباعی 
 | 2 
							 | 1 
							 | 
	یاقوت لبت در عدن پرورده 
 | 
	حافظ 
 | 36 
							 | 
					
	رباعی 
 | 3 
							 | 0 
							 | 
	همچون لب خود مدام جان میپرور 
 | 
	حافظ 
 | 36 
							 | 
					
	رباعی 
 | 4 
							 | 1 
							 | 
	زان راح که روحیست به تن پرورده 
 | 
	حافظ 
 | 36 
							 | 
					
	رباعی 
 | 1 
							 | 0 
							 | 
	گفتی که تو را شوم مدار اندیشه 
 | 
	حافظ 
 | 37 
							 | 
					
	رباعی 
 | 2 
							 | 1 
							 | 
	دل خوش کن و بر صبر گمار اندیشه 
 | 
	حافظ 
 | 37 
							 | 
					
	رباعی 
 | 3 
							 | 0 
							 | 
	کو صبر و چه دل، کنچه دلش میخوانند 
 | 
	حافظ 
 | 37 
							 | 
					
	رباعی 
 | 4 
							 | 1 
							 | 
	یک قطرهی خون است و هزار اندیشه 
 | 
	حافظ 
 | 37 
							 | 
					
	رباعی 
 | 1 
							 | 0 
							 | 
	آن جام طرب شکار بر دستم نه 
 | 
	حافظ 
 | 38 
							 | 
					
	رباعی 
 | 2 
							 | 1 
							 | 
	وان ساغر چون نگار بر دستم نه 
 | 
	حافظ 
 | 38 
							 | 
					
	رباعی 
 | 3 
							 | 0 
							 | 
	آن میکه چو زنجیر بپیچد بر خود 
 | 
	حافظ 
 | 38 
							 | 
					
	رباعی 
 | 4 
							 | 1 
							 | 
	دیوانه شدم بیار بر دستم نه 
 | 
	حافظ 
 | 38 
							 | 
					
	رباعی 
 | 1 
							 | 0 
							 | 
	با شاهد شوخ شنگ و با بربط و نی 
 | 
	حافظ 
 | 39 
							 | 
					
	رباعی 
 | 2 
							 | 1 
							 | 
	کنجی و فراغتی و یک شیشهی می 
 | 
	حافظ 
 | 39 
							 | 
					
	رباعی 
 | 3 
							 | 0 
							 | 
	چون گرم شود ز باده ما را رگ و پی 
 | 
	حافظ 
 | 39 
							 | 
					
	رباعی 
 | 4 
							 | 1 
							 | 
	منت نبریم یک جو از حاتم طی 
 | 
	حافظ 
 | 39 
							 | 
					
	رباعی 
 | 1 
							 | 0 
							 | 
	قسام بهشت و دوزخ آن عقده گشای 
 | 
	حافظ 
 | 40 
							 | 
					
	رباعی 
 | 2 
							 | 1 
							 | 
	ما را نگذارد که درآییم ز پای 
 | 
	حافظ 
 | 40 
							 | 
					
	رباعی 
 | 3 
							 | 0 
							 | 
	تا کی بود این گرگ ربایی، بنمای 
 | 
	حافظ 
 | 40 
							 | 
					
	رباعی 
 | 4 
							 | 1 
							 | 
	سرپنجهی دشمن افکن ای شیر خدای 
 | 
	حافظ 
 | 40 
							 | 
					
	رباعی 
 | 1 
							 | 0 
							 | 
	گر همچو من افتادهی این دام شوی 
 | 
	حافظ 
 | 42 
							 | 
					
	رباعی 
 | 2 
							 | 1 
							 | 
	ای بس که خراب باده و جام شوی 
 | 
	حافظ 
 | 42 
							 | 
					
	رباعی 
 | 3 
							 | 0 
							 | 
	ما عاشق و رند و مست و عالم سوزیم 
 | 
	حافظ 
 | 42 
							 | 
					
	رباعی 
 | 4 
							 | 1 
							 | 
	با ما منشین اگر نه بدنام شوی 
 | 
	حافظ 
 | 42 
							 | 
					
	قطعه 
 | 1 
							 | 0 
							 | 
	تو نیک و بد خود هم از خود بپرس 
 | 
	حافظ 
 | 43 
							 | 
					
	قطعه 
 | 2 
							 | 1 
							 | 
	چرا بایدت دیگری محتسب 
 | 
	حافظ 
 | 43 
							 | 
					
	قطعه 
 | 3 
							 | 0 
							 | 
	و من یتق الله یجعل له 
 | 
	حافظ 
 | 43 
							 | 
					
	قطعه 
 | 4 
							 | 1 
							 | 
	و یرزقه من حیث لا یحتسب 
 | 
	حافظ 
 | 43 
							 | 
					
	قطعه 
 | 1 
							 | 0 
							 | 
	سرای مدرسه و بحث علم و طاق و رواق 
 | 
	حافظ 
 | 44 
							 | 
					
	قطعه 
 | 2 
							 | 1 
							 | 
	چه سود چون دل دانا و چشم بینا نیست 
 | 
	حافظ 
 | 44 
							 | 
					
	قطعه 
 | 3 
							 | 0 
							 | 
	سرای قاضی یزد ارچه منبع فضل است 
 | 
	حافظ 
 | 44 
							 | 
					
	قطعه 
 | 4 
							 | 1 
							 | 
	خلاف نیست که علم نظر در آنجا نیست 
 | 
	حافظ 
 | 44 
							 | 
					
	قطعه 
 | 1 
							 | 0 
							 | 
	آصف عهد زمان جان جهان تورانشاه 
 | 
	حافظ 
 | 45 
							 | 
					
	قطعه 
 | 2 
							 | 1 
							 | 
	که در این مزرعه جز دانهی خیرات نکشت 
 | 
	حافظ 
 | 45 
							 | 
					
	قطعه 
 | 3 
							 | 0 
							 | 
	ناف هفته بد و از ماه صفر کاف و الف 
 | 
	حافظ 
 | 45 
							 | 
					
	قطعه 
 | 4 
							 | 1 
							 | 
	که به گلشن شد و این گلخن پر دود بهشت 
 | 
	حافظ 
 | 45 
							 | 
					
	قطعه 
 | 5 
							 | 0 
							 | 
	آنکه میلش سوی حقبینی و حقگویی بود 
 | 
	حافظ 
 | 45 
							 | 
					
	قطعه 
 | 6 
							 | 1 
							 | 
	سال تاریخ وفاتش طلب از میل بهشت 
 | 
	حافظ 
 | 45 
							 | 
					
	قطعه 
 | 1 
							 | 0 
							 | 
	بهاء الحق و الدین طاب مثواه 
 | 
	حافظ 
 | 46 
							 | 
					
	قطعه 
 | 2 
							 | 1 
							 | 
	امام سنت و شیخ جماعت 
 | 
	حافظ 
 | 46 
							 | 
					
	قطعه 
 | 3 
							 | 0 
							 | 
	چو میرفت از جهان این بیت میخواند 
 | 
	حافظ 
 | 46 
							 | 
					
	قطعه 
 | 4 
							 | 1 
							 | 
	بر اهل فضل و ارباب براعت 
 | 
	حافظ 
 | 46 
							 | 
					
	قطعه 
 | 5 
							 | 0 
							 | 
	به طاعت قرب ایزد میتوان یافت 
 | 
	حافظ 
 | 46 
							 | 
					
	قطعه 
 | 6 
							 | 1 
							 | 
	قدم در نه گرت هست استطاعت 
 | 
	حافظ 
 | 46 
							 | 
					
	قطعه 
 | 7 
							 | 0 
							 | 
	بدین دستور تاریخ وفاتش 
 | 
	حافظ 
 | 46 
							 | 
					
	قطعه 
 | 8 
							 | 1 
							 | 
	برون آر از حروف قرب طاعت 
 | 
	حافظ 
 | 46 
							 | 
					
	قطعه 
 | 1 
							 | 0 
							 | 
	قوت شاعرهی من سحر از فرط ملال 
 | 
	حافظ 
 | 47 
							 | 
					
	قطعه 
 | 2 
							 | 1 
							 | 
	متنفر شده از بنده گریزان میرفت 
 | 
	حافظ 
 | 47 
							 | 
					
	قطعه 
 | 3 
							 | 0 
							 | 
	نقش خوارزم و خیال لب جیحون میبست 
 | 
	حافظ 
 | 47 
							 | 
					
	قطعه 
 | 4 
							 | 1 
							 | 
	با هزاران گله از ملک سلیمان میرفت 
 | 
	حافظ 
 | 47 
							 | 
					
	قطعه 
 | 5 
							 | 0 
							 | 
	میشد آن کس که جز او جان سخن کس نشناخت 
 | 
	حافظ 
 | 47 
							 | 
					
	قطعه 
 | 6 
							 | 1 
							 | 
	من همیدیدم و از کالبدم جان میرفت 
 | 
	حافظ 
 | 47 
							 | 
					
	قطعه 
 | 7 
							 | 0 
							 | 
	چون همیگفتمش ای مونس دیرینهی من 
 | 
	حافظ 
 | 47 
							 | 
					
	قطعه 
 | 8 
							 | 1 
							 | 
	سخت میگفت و دلآزرده و گریان میرفت 
 | 
	حافظ 
 | 47 
							 | 
					
	قطعه 
 | 9 
							 | 0 
							 | 
	گفتم اکنون سخن خوش که بگوید با من 
 | 
	حافظ 
 | 47 
							 | 
					
	قطعه 
 | 10 
							 | 1 
							 | 
	کان شکر لهجهی خوشخوان خوش الحان میرفت 
 | 
	حافظ 
 | 47 
							 | 
					
	قطعه 
 | 11 
							 | 0 
							 | 
	لابه بسیار نمودم که مرو سود نداشت 
 | 
	حافظ 
 | 47 
							 | 
					
	قطعه 
 | 12 
							 | 1 
							 | 
	زانکه کار از نظر رحمت سلطان میرفت 
 | 
	حافظ 
 | 47 
							 | 
					
	قطعه 
 | 13 
							 | 0 
							 | 
	پادشاها ز سر لطف و کرم بازش خوان 
 | 
	حافظ 
 | 47 
							 | 
					
	قطعه 
 | 14 
							 | 1 
							 | 
	چه کند سوخته از غایت حرمان میرفت 
 | 
	حافظ 
 | 47 
							 | 
					
	قطعه 
 | 1 
							 | 0 
							 | 
	رحمان لایموت چو آن پادشاه را 
 | 
	حافظ 
 | 48 
							 | 
					
	قطعه 
 | 2 
							 | 1 
							 | 
	دید آن چنان کز او عمل الخیر لایفوت 
 | 
	حافظ 
 | 48 
							 | 
					
	قطعه 
 | 3 
							 | 0 
							 | 
	جانش غریق رحمت خود کرد تا بود 
 | 
	حافظ 
 | 48 
							 | 
					
	قطعه 
 | 4 
							 | 1 
							 | 
	تاریخ این معامله رحمان لایموت 
 | 
	حافظ 
 | 48 
							 | 
					
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